शिक्षण विधियाँ नोट्स – Teaching Methods in Hindi – REET 2022

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इस पोस्ट में मनोविज्ञान की सभी शिक्षण विधियों को एक साथ आप पढ़ सकते हैं , तो अभी पढिए ।

खेल विधि

फ्रोबेल अपनी विश्व प्रसिद्ध “किण्डरगार्टन शिक्षा पद्धति” के संस्थापक के रूप में विख्यात हैं। इस अभिनव शिक्षा योजना में उन्होंने बालकों की शिक्षा के लिए खेल-विधि का प्रयोग बड़े व्यापक रूप से किया है। खेल विधि के जन्मदाता फ्रोबेल (Froebel) है। लेकिन आधुनिक युग में हेनरी काल्डवेल कुक (Henry Caldwell Cook) संभवत: वह पहले व्यक्ति थे, जिसने बालक को शिक्षा देने के लिए इस प्रणाली का प्रबल समर्थन किया।

किण्डरगार्टन शिक्षा पद्धति निम्नलिखित मूल सिद्धान्तों पर आधारित थी –

1. खेल विधि द्वारा शिक्षा प्रदान करना।

2. आत्माभिव्यक्ति का सिद्धान्त 

3. स्व-क्रियाओं का सिद्धान्त

4. अनेकता में एकता का सिद्धान्त

5. समाज और व्यक्ति की एकता का सिद्धान्त ।

6. प्राकृतिक विकास का सिद्धान्त ।

खेल विधि में शिक्षण सामग्री का बहुत अधिक महत्त्व होता है। अतः फ्रोबेल ने निम्नलिखित खेल सामग्री का प्रावधान किया है-

1. उपहार

2. मातृ खेल और बच्चों के गीत

3. व्यापारिक और यांत्रिक कार्यों की खेल सामग्री

4. कविताओं और कहानियों की पुस्तकें

5. चित्रकला, बागवानी और सामाजिक कार्यों से सम्बन्धित खेल सामग्री

वर्धा योजना या बुनियादी तालीम

महात्मा गांधी की वर्धा योजना या बेसिक शिक्षा (बुनियादी तालीम) भी अपने ढंग की एक शिक्षाविधि है। गांधी जी ने देश की तत्कालीन स्थिति को देखते हुए शिक्षा में ‘हाथ के काम’ को प्रधानता दी। उनका विश्वास था कि जब तक छात्र हाथ से काम नहीं करता तब तक उसे श्रम का महत्व नहीं ज्ञात होता। सैद्धांतिक ज्ञान मनुष्य को अहंकारी एवं निष्क्रिय बना देता है। अत: बच्चों को आरंभ से ही किसी न किसी हस्तकौशल के द्वारा शिक्षा देनी चाहिए। हमारे देश में कृषि एवं कताई-बुनाई बुनियादी धंधे हैं जिनमें देश की तीन चौथाई जनता लगी हुई है। अत: उन्होंने इन्हीं दोनों को मूल हस्तकौशल मानकर शिक्षा में प्रमुख स्थान दिया। बेसिक शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ हैं :-

  • (1) मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा,
  • (2) हस्तकौशल केंद्रित शिक्षा,
  • (3) सात से 14 वर्ष तक निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा,
  • (4) शिक्षा स्वावलंबी हो, अर्थात् कम से कम अध्यापकों का वेतन छात्रों के किए हुए कार्यों की बिक्री से आ जाए।

अंतिम सिद्धांत का बड़ा विरोध हुआ और बेसिक शिक्षा में से हटा दिया गया।

अंग्रेजी शिक्षा ने देश के अधिकांश शिक्षित वर्ग को ऐसा पंगु बना दिया है कि वे हाथ से काम करना हेय मानते हैं। यही कारण है कि संपन्न तथा उच्च वर्ग के लोगों ने बुनियादी शिक्षा के प्रति उदासीनता दिखाई जिससे यह शिक्षा केवल निर्धन वर्ग के लिए रह गई है। अत: यह धीरे-धीरे असफल होती जा रही है।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि शिक्षणविधियाँ अनेक हैं। सबका प्रवर्तन किसी न किसी विशेष परिस्थिति में किसी शिक्षाशास्त्री के द्वारा हुआ है। वास्तव में प्रत्येक अध्यापक की अपनी शिक्षाविधि होती है जिससे व छात्रों को उनकी रुचि तथा योग्यता के अनुरूप ज्ञान प्रदान करता है। जो विधि जिसके लिए अधिक उपयोगी हो वही उसके लिए सर्वश्रेष्ठ विधि है।

डाल्टन योजना

अमरीका के डाल्टन नामक स्थान में 1912 से 1915 के बीच कुमारी हेलेन पार्खर्स्ट्र ने शिक्षा की एक नई विधि प्रयुक्त की जिसे डाल्टन योजना कहते हैं। यह विधि कक्षाशिक्षण के दोषों को दूर करने के लिए आविष्कृत की गई थी। डाल्टन योजना में कक्षाभवन का स्थान प्रयोगशाला ले लेती है। प्रत्येक विषय की एक प्रयोगशाला होती है, जिसमें उस विषय के अध्ययन के लिए पुस्तकें, चित्र, मानचित्र तथा अन्य सामग्री के अतिरिक्त सन्दर्भग्रंथ भी रहते हैं। विषय का विशेषज्ञ अध्यापक प्रयोगशाला में बैठकर छात्रों की सहायता करता है, उनके कार्यों की जाँच तथा संशोधन करता है। वर्ष भर का कार्य 9 या 10 भागों में बाँटक निर्धारित कार्य (असाइनमेंट) के रूप में प्रत्येक छात्र को लिखित दिया जाता है। छात्र उस निर्धारित कार्य को अपनी रुचि के अनुसार विभिन्न प्रयोगशालाओं में जाकर पूरा करता है। कार्य अन्वितियों में बँटा रहता है। जितनी अन्विति का कार्य पूरा हो जाता है उतनी का उल्लेख उसके रेखापत्र (ग्राफकार्ड) पर किया जाता है। एक मास का कार्य पूरा हो जाने पर ही दूसरे मास का निर्धारित कार्य दिया जाता है। इस प्रकार छात्र की उन्नति उसके किए हुए कार्य पर निर्भर रहती है। इस योजना में छात्रों को अपनी रुचि और सुविधा के अनुसार कार्य करने की छूट रहती है। मूल स्रोतों से अध्ययन करने के कारण उनमें स्वावलंबन भी आ जाता है। इस योजना के अनेक रूपांतर हुए जैसे- बटेविया, विनेटका आदि योजनाएँ। डेक्रौली योजना यद्यपि इससे पूर्व की है, फिर भी उसके सिद्धांतों में डाल्टन योजना के आधार पर परिवर्तन किए गए।

प्रोजेक्ट विधि

अमरीका के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री ड्यूवी, किलपैट्रिक, स्टीवेंसन आदि के सम्मिलित प्रयास का फल योजना (प्रोजेक्ट) विधि है। इसके अनुसार ज्ञानप्राप्ति के लिए स्वाभाविक वातावरण अधिक उपयुक्त होता है। इस विधि से पढ़ाने के लिए पहले कोई समस्या ली जाती है, जो प्राय: छात्रों के द्वारा उठाई जाती है और उस समस्या का हल करने के लिए उन्हीं के द्वारा योजना बनाई जाती है और योजना को स्वाभाविक वातावरण में पूर्ण किया जाता है। इसी से इसकी परिभाषा इस प्रकार की जाती है कि योजना वह समस्यामूलक कार्य है जो स्वाभाविक वातावरण में पूर्ण किया जाए।

शोधविधि

जर्मनी के प्रोफेसर आर्मस्ट्रौंग द्वारा शोधविधि का प्रतिपादन हुआ था। इस विधि में छात्रों को उपयुक्त वातावरण में रखकर स्वयं किसी तथ्य को ढूढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि अध्यापक कुछ नहीं करता और छात्रों को मनमाना काम करने को छोड़ देता है। सच पूछिए तो वह छात्र का पथप्रदर्शन करता तथा उसे गलत रास्ते से हटाकर सीधे रास्ते पर लाता रहता है। उसका लक्ष्य यह रहता है कि जो ज्ञान छात्र अपने निरीक्षण अथवा प्रयोग द्वारा प्राप्त कर सकता है उसे बताया न जाए। इस विधि का प्रयोग पहले तो विज्ञान की शिक्षा में किया गया। फिर धीरे-धीरे गणित, भूगोल तथा अन्य विषयों में भी इसका प्रयोग होने लगा।

करके सीखना

जब से बाल मनोविज्ञान के विकास ने यह सिद्ध कर दिया है कि शिक्षा का केंद्र न तो विषय है, न अध्यापक, वरन् छात्र है, तब से शिक्षण में सक्रियता को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। करके सीखना (learning by doing) अर्थात् स्वानुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त करना, आजकल का सर्वाधिक व्यापक शिक्षणसिद्धांत है। अत: रूसों से लेकर मांटेसरी और ड्यूबी तक शिक्षाशास्त्रियों ने बच्चों की ज्ञानेंद्रियों को अधिक कार्यशील बनाने तथा उनके द्वारा शिक्षा देने पर अधिक बल दिया है। महात्मा गांधी ने भी इसी सिद्धांत के आधार पर बेसिक शिक्षा को जन्म दिया। अत: सक्रिय विधि के अंतर्गत अनेक विधियाँ सम्मिलित की जा सकती हैं जैसे- शोधविधि (ह्यूरिस्टिक), योजना (प्रोजेक्ट) विधि, डाल्टन प्रणाली, बेसिक-शिक्षा-विधि, इत्यादि।

प्रश्नोत्तर विधि (सुकराती विधि)

प्रश्न यद्यपि एक युक्ति है फिर भी सुकरात ने प्रश्नोत्तर को एक विधि के रूप में प्रयोग करके इसे अधिक महत्व प्रदान किया है। इसी से इसे सुकराती विधि कहते हैं। इसमें प्रश्नकर्ता से ही प्रश्न किए जाते हैं और उसके उत्तरों के आधार पर से प्रश्न करते-करते अपेक्षित उत्तर निकलवा लिया जाता है।

काउलर के अनुसार- “शिक्षण मुख्य रूप से प्रश्नों के द्वारा होना चाहिए। “प्रश्न पूछने की आवश्यकता एवं महत्व-

  • (१) पूर्व ज्ञान का पता लगाकर आगे आने वाले ज्ञान से उसका सम्बन्ध जोड़ने के लिए,
  • (२) यह ज्ञात करने के लिए कि बच्चे ने पढ़े हुए पाठ से कितना ज्ञान अर्जित किया है,
  • (३) बच्चों की समस्याओं को जानने और उनके निवारण हेतु।

प्रश्न कैसे होने चाहिए-

  • (१) प्रश्न की भाषा स्पष्ट व निश्चित होनी चाहिए जिससे छात्र प्रश्न को भलीभांति समझ सकें,
  • (२) प्रश्नों की रचना बालक के व्यावहारिक भाषा के अनुसार की जानी चाहिए,
  • (३) प्रश्न, उद्देश्य के साथ सम्बंधित होना चाहिए,
  • (४) प्रश्नों का क्रम तर्कसंगत होना चाहिए।

कथनविधि एवं व्याख्यानविधि

वस्तु एवं दृष्टांतविधियों से ज्ञान प्राप्त करते करते जब बच्चों को कुछ कुछ अनुमान करने तथा अप्रत्यक्ष वस्तु को भी समझने का अभ्यास हो जाता है तब, कथनविधि का सहारा लिया जाता है। इसमें वर्णन के द्वारा छात्रों को पाठ्यवस्तु का ज्ञान दिया जाता है। परंतु इस विधि में छात्र अधिकतर निष्क्रिय श्रोता बने रहते हैं और पाठन प्रभावशाली नहीं होता। इसी से प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री हर्बर्ट स्पेंसर ने कहा है- “बच्चों को कम से कम बतलाना चाहिए, उन्हें अधिक से अधिक स्वत: ज्ञान द्वारा सीखना चाहिए”। व्याख्यानविधि इसी की सहचरी है। उच्च कक्षाओं में प्राय: व्याख्यानविधि का ही प्रयोग लाभदायक समझा जाता है।

कथनविधि में प्राय: हर्बर्ट के पाँच सोपानों का प्रयोग किया जाता है। वे हैं(1) प्रस्तावना, (2) प्रस्तुतीकरण, (3) तुलना या सिद्धांतस्थापन, (4) आवृत्ति, (5) प्रयोग।

परंतु केवल ज्ञानार्जन के पाठों में ही पाँचों सोपानों का प्रयोग होता है। कौशल तथा रसास्वादन के पाठों में कुछ सीमित सोपानों का ही प्रयोग होता है।

वस्तुविधि

शिक्षण का एक प्रसिद्ध सूत्र हैं – “मूर्त से अमूर्त की ओर“। वास्तव में हमें बाह्य संसार का ज्ञान अपनी ज्ञानेंद्रियों के द्वारा होता है जिनमें नेत्र प्रमुख हैं। किसी वस्तु पर दृष्टि पड़ते ही हमें उसका सामान्य परिचय मिल जाता है। अत: मूर्त वस्तु ज्ञान प्रदान करने का सबसे सरल साधन है। इसीलिये आरंभ से वस्तुविधि का सहारा लिया जाता है अर्थात् बच्चों को पढ़ाने के लिए वस्तुओं का प्रदर्शन करके उनके विषय में ज्ञान प्रदान किया जाता है। यहाँ तक कि अमूर्त को भी मूर्त बनाने का प्रयास किया जाता है। जैसे, तीन और दो पाँच को समझाने के लिए पहले छात्रों के सम्मुख तीन गोलियाँ रखी जाती हैं। फिर उनमें दो गोलियाँ और मिलाकर सबको एक साथ गिनाते हैं तब तीन और दो पाँच स्पष्ट हो जाता है।

संश्लेषणात्मक तथा विश्लेषणात्मक

दूसरे दृष्टिकोण से शिक्षण विधि के दो अन्य प्रकार हो सकते हैं। पाठ्यवस्तु को उपस्थित करने का ढंग यदि ऐसा हैं कि पहले अंगों का ज्ञान देकर तब पूर्ण वस्तु का ज्ञान कराया जाता है तो उसे संश्लेषणात्मक विधि कहते हैं। जैसे हिंदी पढ़ाने में पहले वर्णमाला सिखाकर तब शब्दों का ज्ञान कराया जाता है। तत्पश्चात् शब्दों से वाक्य बनवाए जाते हैं। परंतु यदि पहले वाक्य सिखाकर तब शब्द और अंत में वर्ण सिखाए जाएँ तो यह विश्लेषणात्मक विधि कहलाएगी क्योंकि इसमें पूर्ण से अंगों की ओर चलते हैं।

प्रयोगशाला विधि

(Learning by observation) अवलोकन द्वारा सीखना + (learning by doing) करके सीखना पर आधारित विधि होती है।
    – इस विधि को विज्ञान तथा गणित शिक्षण की श्रेष्ठतम विधियों में से एक विधि माना जाता है जिसमें बालक स्वयं सक्रिय रहते हुए प्रायोगिक कार्यों के माध्यम से सैद्धांतिक ज्ञान की पुष्टि करता है जिससे उससे पुनर्बलन मिलता है।
    – इस विधि का आधार आगमन विधि होती हैं| किंतु सिद्धांतों निष्कर्षों की प्राप्ति क्रियात्मक रूप से की जाती है इसलिए प्रयोगशाला विधि को आगमन विधि का क्रियात्मक रूप भी कहा जाता है।
    – प्रयोगशाला विधि  में ज्ञान का आधार ज्ञानेंद्रियां होती है| और प्राप्त ज्ञान स्थाई होता है।    
    – बालक संपूर्ण प्रक्रिया में सक्रिय रहता है| तथा अध्यापक केवल परामर्शदाता की भूमिका में होता है| इसीलिए यह एक श्रेष्ठ प्रजातांत्रिक विधि मानी जाती है।
     – प्रयोगशाला विधि शिक्षण के कौशलात्मक उद्देश्य की प्राप्ति की श्रेष्ठ विधि होती है।


शिक्षण सूत्र

  1.  उदाहरण से नियम
  2.  प्रत्यक्ष से प्रमाण
  3.  ज्ञात से अज्ञात
  4.  विशिष्ट से सामान्य
  5.  स्थूल से सूक्ष्म
  6.  मूर्त से अमूर्त

मस्तिष्क उद्वेलन (Brainstorming)

  • मस्तिष्क उद्वेलन (Brainstorming) विधि में बालक को कोई भी ऐसी समस्या प्रदान की जाती है जिसके द्वारा बालक के मस्तिष्क में उथल-पुथल उत्पन्न होती है एवं इस उथल-पुथल के द्वारा बालक किसी नवीन विषय को प्रकट करता है। 
  • सामाजिक विज्ञान विषय में इस विधि के दौरान अनेक विचारों की प्राप्ति की जाती है एवं शिक्षक की सहायता के बिना बालक स्वयं अपनी मानसिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए अधिगम करता है। इस विधि में मौलिक विचारों का प्रस्तुतीकरण किया जाता है। 
  • इस विधि में बालकों के मस्तिष्क को सक्रिय करने और समस्या समाधान हेतु उकसाया जाता है। 
  • इस विधि में बालकों को पूर्ण स्वतंत्रता दी जाती है। 
  • चिंतन पर आधारित विधियां विधि है।
  • मानसिक तर्क-वितर्क के अवसर 
  • सामाजिकता के विकास में सहायक 
  • छात्र केंद्रित पद्धति 
  • शिक्षक की भूमिका मार्गदर्शक के समान 
  • व्यक्तिगत विभिन्नता पर आधारित विधि 
  • सृजनात्मकता के विकास में सहायक

क्रमांकशिक्षण विधिप्रतिपादक
1.मांटेसरी विधिमारिया मांटेसरी
2.किंडर गार्डनफ्रोबेल
3.खेल विधिहेनरी कोल्डवेल कुक
4.डाल्टन विधिहेलन पार्कहर्स्ट
5.पर्यटन विधिपेस्टोलॉजी
6.खोज विधि (ह्यूरिस्टिक विधि या अन्वेषण विधि)आर्मस्ट्रांग
7.प्रश्नोत्तर विधिसुकरात
8.प्रोजेक्ट विधिविलियम हेनरी किलपैट्रिक
9.वैज्ञानिक विधिगुडवार स्केट्स
10.समस्या समाधान विधिसुकरात
11सूक्ष्म शिक्षण विधिराबर्ट
12मूल्यांकन विधिजे .एम राइस
13समस्या समाधान विधिसुकरात
14इकाई उपागमएच. सी मॉरीसन
15विनेटिका विधिकार्लटन बाशबर्न
16ड्रेकाली शिक्षण विधिड्रेकाली
17ब्रेल पद्धतिलुई ब्रेल
18प्रक्रिया विधिकमेनियस
19बेसिक शिक्षा पद्धतिमहात्मा गांधी
20समाजमिति विधिएल. मोरेनो
21आगमन विधिअरस्तु
22निगमन विधिप्लेटो
23हरबर्ट विधिहरबर्ट
24प्रश्नावली विधिबुडबर्थ
25संवाद विधिप्लेटो
26रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन विधि या बाह्य अनुदेशन विधिबी. एफ. स्किनर
27शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन विधि या आंतरिक अनुदेशन विधिनॉर्मन ए. क्राउडर
28अवरोही अभिक्रमित अनुदेशनथामस एफ. गिलबर्ट
29वोटिविया विधिजॉन कैनेडी
30ओविड विधिप्रो• ड्रेकाली